Tuesday, March 18, 2014

बहुत शर्मिंदा हूँ आज मैं खुदपर

गुडिया ...

बहुत शर्मिंदा हूँ आज मैं खुदपर

कैसे सब कुछ देख रहा हूँ
हर चोराहे पे इज्ज़त लूटती
और मैं आँखें सेक रहा हूँ ...


कितना लाचार बनाया है खुदको
कितना खुदको कमजोर किया है
हाथ फैलाये खड़े हुए है
इतना हमको किसने मजबूर किया है...

हर दिन एक गुडिया टूट रही है
कुछ वहशी लोगों के हाथों से
हर दिन इज्ज़त नीलाम हो रही
हर एक गली, हर चोपटों से...

ना जाने कब तक ये सत्ता आँख बंद कर पड़ी रहे
ना जाने कब तक ये नज़रें मासूमों पे गडी रहे
ना जाने कब तक ये गन्दा रूप समाज का सहना होगा
अब चुप नहीं रह सकते आगे बढ़कर कुछ कहना होगा...

ये जो ऊपर बैठे है कुर्सी के उन्हें बस सत्ता प्यारी है
उनको क्या मतलब है इससे लूटती तो अना हमारी है
लेकिन हम उनके आगे क्यूँ बार बार फ़रियाद करें
हम क्यूँ चुप रहकर इन गुंडों के होसले आबाद करें ...

अब सबको मिलकर ही इन दोनों से लड़ना होगा
हाथ मिलाओ आगे आओ हमको ही कुछ करना होगा
सबसे पहले बदलना होगा इस कमजोर व्यवस्था को
नपुंसक हाथों से फिर अब वापिस लेना होगा सत्ता को ...

आओ हम सब आगे आकर  ऐसा एक कानून बनाये
हर वहशी बलात्कारी को सरे राह फांसी लटकाएं
तब ही डर दिल में  बैठेगा इन वहशी दरिंदों के
हाथ लगाने से भी डरेगा वो इन मासूम परिंदों के...

 poem by our friend Joshi... 

2 comments:

Anonymous said...

bahut accha..............

Admin said...

read more story :--- http://hereindia.blogspot.in/p/your-story.html

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